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पुस्तकालयों का श्राप : एक व्यथा

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पुस्तकालय अत्यंत ही धार्मिक स्थल होते है , जहाँ बैठ भविष्य के पुरोधा अपना स्वंय का भविष्य निर्माण का प्रयास करते देखे जा सकते है । परन्तु भारत के पुस्तकालय अवश्य ही किसी श्राप का शिकार है क्योंकि न तो ये सरकारी प्राथमिकताओं में जगह बनाते है न ही खुद को मुद्दा । जो मौजूद है उनकी अवस्था यह बतलाती है कि उनके पीछे कि सरकारी मंशा बहुत बड़ी है :
क ) बेरोजगारों को रोजगार प्रदान करने कि (जो पुस्तकालय विज्ञानं पड़ने कि गलती कर बैठते है )
ख ) प्रकाशित हो रही पुस्तकों को खरीद अर्थव्यवस्था को बढ़ाना
ग ) समाचार पत्रो कि संख्या बढ़ा भारत कि अच्छी छवि प्रस्तुत करना
घ ) ठेकेदारों , और अन्य निर्माण संबधी ठेकों से रोजगार सृजन , एवं
च ) भारत में पुस्तकालय है यह प्रदर्शित करना और इसके लिए येन केन जो राशि प्राप्त है उसका व्यय , कि ।
परन्तु कहीं भी , किसी भी सार्वजनिक पुस्तकालय का ध्येय पाठक केंद्रित नहीं है । वहाँ पढने कि लालसा रखने वाले बोझ ही है उनके लिए (यहाँ यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि दक्षिण भारत में वास्तविक पुस्तकालय कुछेक जगह मौजूद है जो अपना वास्तविक उद्देश्य पूर्ण कर रहे है ) ।
आज हर जगह एक ही नजारा है , नए सदस्यों को कैसे हतोत्साहित किया जाये और पुस्तकालय कर्मी उस पुलिस वाले कि तरह कार्य करते है जो ऍफ़.आई आर (FIR ) न लिखने के न जाने कितने बहाने बनाता है । पर उस पुलिस वाले के खिलाफ आवाज तो उठती है ऐसे लोगो के खिलाफ उदासीनता क्यों ?
दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी के कर्मियों का कहना है कि “इस पुस्तकालय के नियम कठोर न हो तो लोग यहाँ आना शुरू कर देंगे । ” और भी कई जगह यही हाल है । वहाँ आने वाले बुजुर्गों का (जो वहाँ रिटायर होने के बाद सरकारी पेंशन प्राप्त कर रहे है ) जो 5 रुपए का समाचार पढ़ने वहा चल कर आते है , का मानना है कि वहाँ आने वाले युवा पाठकों को वहां न आने दीया जाये , क्यों ? ताकि उनके जैसे लोग अपने नित्य के 5 रुपए बचा वहाँ सरकारी समाचार पत्र पढने आ सके ।
भारत जो एक समय विशाल पुस्तकालयों कि धरती थी पर आज ऐसा सूखा क्यों ? आखिर क्यों नहीं चाहती सरकारें और क्यों नही पुस्तकालय कर्मी कि वहाँ आ , लोग पढ़ सके ? या पुस्तकालयों कि वह संस्कृति नालंदा एवं विक्रमशिला के विशाल पुस्तकालयों के जलने के साथ ही समाप्त हो गयी । कदाचित उन जल रहे पुस्तकालयों का ही श्राप है यह ।
पुनः अगर कहीं थोड़ी बहुत सहूलियत दिखने कि गलती सरकारी विभाग कर दे तो वहाँ का पर्यावरण (पठन-पाठन का ) तो वहाँ आने वाले भारतीय कर ही देते है , आपस में बातें करना , अवांछित शोर तो जब पाठक ऐसा करते है तो कर्मचारी भी उनसे होड़ लगाना सुरु कर देते है । जो कुल जमा “पुस्तकालय दुर्दशा ” परिणाम उत्त्पन्न करता है

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